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Saturday, January 5, 2019

श्री संत सेना महाराजांचे आई-वडील

                                                                                      
श्री संत सेना महाराजांचे आई - वडील 

              रेवा  संस्थानात  वाघेला  राजपूत  वंशाचे  राजे  राज्य  करीत  होते.  हा  भाग  रेवाखंड  म्हणून  प्रसिद्ध  आहे.  या  संस्थानची  राजधानी  बांधवगड  हा  एक  किल्ला  होता.  या  किल्यात  राहुन  वाघेला  वंशाचे  राजे  राज्य  करीत  असत  हा  किल्ला  कैमोर  च्या  डोंगरावर  बांधलेला  होता.


             बांधवगडच्या  उत्तरेस  गंगा  नदीचा  पवित्र  प्रवाह  वाहतो.  दक्षिणेस  शोणभद्र  नदी  वाहते,  पश्चिमेस  पुष्करजी  दत्तात्रय  स्वामी  यांचे  आश्रम  होते,  ईशानेस  पवित्र  तीर्थ  क्षेत्र  काशी  किल्यावरून  सभोवतालचा  प्रदेश  नयनरम्य  सृष्टि  सौंदर्याने  नटलेला  दिसे,  हिरवीगार  शेते  दक्षिण  उत्तरेचे  रूपेरी  पाण्याचे  प्रवाह,  वरचे  निळेभोर  आकाश ,  काशी  विश्वनाथ  देवालयचे  सुवर्णकळस, नागमोडी  रस्ते,  दूरदूरचे  डोंगर,  धूसर  क्षितिज,  उंच  व  विस्तीर्ण  झाडांचे  पुंजके  यानी  कोणाचेही  मन  प्रसन्न  होत  असे. 

               बांधवगड  गढ़पती  वाघेला  बंधदीपक  महाराणा  रामराजे  सेना  महाराजांचे  वेळी  राज्य  करीत  होते.  त्यांचे  प्रजेवर  पुत्रवत  प्रेम  होते. 

            महाराणा  रामराजांच्या  दरबारात  राजांचे  श्मश्रु  कर्म  करणारे,  तैलमर्दन  मालिश  करणारे  सेना  महाराजांचे  घराणे  होते.  त्यावेळी संत सेना   महाराजांचे  वडील  देवीदास  हे  महाराजांचे  अत्यंत  आवडते  होते,  ते  दिवसभर  महाराजांच्या  जवळ  रहात  असत,  महाराणा  रामराजे  व  देवीदासजी  यांच्यात  धार्मिक,  आध्यात्मिक,  सामाजिक  या  व  अन्य  विषयांवर  चर्चा  होत  ऐसे.  महाराणा  हे  देवीदासजीना  आपला  सेवक  न  समजता  आपला  मित्र,  सल्लागार  व  मार्गदर्शक  समजत  असत  पण  महाराजांचे  जवळील  देवीदासांचे  वावरणे  दरबारातील  इतर  सरदार,  प्रधानजी,  सेवक  व  इतराना  पहावत  नसे.  देवीदासंबदल  राणाजीचे  मन  कलकिंत  करण्याचे  अनेक  प्रयत्न  मंडळींनी  केले.  पण  तय दुष्ट  खट्पटिस  यश  मिळाले  नाही. देवीदासांची  सेवा  करण्याची  पद्धत,  कर्तव्य,  राणाजी  वरील  निष्ठा,  विलक्षण  चतुरपणा  या  गुणांमुळे  देवीदासबदलचे  राणांचे  मत  चांगलेच  राहिले.  उलट  देवीदासांच्या  धार्मिक  पणाचा  परिणाम  महाराजांवर  होवून  ते  राणाजीना  अधिकच  प्रिय  झाले.  दोघात  ईश्वरी  ज्ञानाविषयी  नेहमी  विचार  विमर्श  होत  असे. 

               देवीदास  आणि  राणा  यांच्या  निकटच्या  स्नेहसंबधामुळे  देवीदासांची  सर्वत्र  कीर्ति  पसरली,  राणाजींची  सेवा  परमार्थिक  चिंतन,  अध्ययन  व  मनन   याशिवाय  देवीदासानी  दूसरा  उद्योग  केला  नाही.  राजधानीत  आलेल्या  साधु  संताना  घरी  नेवून  ते  त्यांची  सेवा  करीत  असत.  त्यांच्या  पासून  धर्मज्ञान  मिळवित  असत.  त्यांचे  घर  हे  जणू  कृष्ण  मंदिरच  बनले  होते. 

               संत सेना  महाराजांची  मातृदेवता  प्रेमकुंवरबाई  ह्या  होत.  त्या  सुशिल  व  संसारदक्ष  होत्या.  त्याही  धार्मिक,  पतिसेवा  पारायण  होत्या  साधु  संताचे  अतिथ्य  त्या  निर्मळपणे  करीत.