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Friday, February 1, 2019

संत सेना महाराजांच्या भक्तीने देवाने सेनाजींचे रूप घेतले .

                                                                 
संत सेना महाराजांच्या भक्तीने देवाने सेनाजींचे रूप घेतले . 


              सेनाजींचा  तारुण्यात  प्रवेश  झाला  होता.  त्यांची  मजबूत  देहयष्टी,  सुंदर  गोजीरे  रूप,  सर्वाना  मोहित  करत  होते.  एके  दिवशी  देवीदासजी  आणि  माता  प्रेमकुंवरबाई  या  दोघांनी  सेनाजींच्या  लग्नाचा  विचार  केला.  आणि  लवकरच  सुंदराबाई  नावाच्या  मुलीशी  सेना  महाराजांचे  लग्न  झाले.  आणि  सेनाजींचा  संसार  सुरु  झाला.  एका  मागून  एक  असे  अनेक  दिवस  निघून  गेले.  देवीदासजी  शरीराने  थकले  होते.  त्यांनी  राजसेवेतून  निवृत्त  होवून  सेनाजींना  महाराणांची  नित्याची  सेवा  करण्याची  जबाबदारी  सोपविली  तसे  त्यांनी  महाराणासमोर  सांगितले  आणि  तीर्थयात्रेस  जाण्याची  परवानगी  मागितली  आणि  तीर्थयात्रेस  निघून  गेले.

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               वडिलांच्या  पश्च्यात  आपल्या  पित्याच्या  पाउलावर  पाउल  टाकून  सेनाजीनी  अल्पावधीतच  राजपुत्र  वीरसिंहाचा  लोभ  संपादन  केला.  त्यांच्या  धार्मिक  वृत्तीमुळे  लोकदरास  पात्र  झाले.
.....आणि  एके  दिवशी.........

    एके  दिनी।  श्रीकृष्ण  पूजनी।  सेना  जाई  त्यात  रंगोनी ।।
    चित्त  वेधले  कृष्ण  चिंतनी।  नुरले  देहभान  तयासी ।।
    मी  तु  पण  नुरली  वृत्ती।  कृष्ण  रूप  झाली  कांति ।।
    देहभान  हरले  पडली  विस्मृती।  राजसेवेची  तेधवा ।।
    राजदूत  आले  म्हही।  सेना  तया  नयनी  पाही ।।
    शब्द  ऐकु  नये  काही।  राजदुताचा ।।

    एकदा  सेना  महाराज  कृष्ण  पूजनात  रंगून  गेले.  ते  देहभान  विसरुन  गेले,  राजसेवेची  आठवण  राहिली  नाही  राजदूत  आल्याचे  दिसले,  पण  शब्द  ऐकु  आले  नाहीत.

   धन्य  धन्य  दिन।  तुमचे  झाले  दरुषन ।।१।।
   आजि  भाग्य  उदया  आले।  तुमचे  पाउल  देखिले ।।२।।
   पूर्वपुण्य  फळा  आले।  माझे  माहेर  भेटले ।।३।।
   सेना  म्हणे  झाला।  धन्य  दिवस  आजि  भला ।।४।।

    देहुडे  ठाण  सुकुमार  गोजीरे ।
             कल्पद्रु  मातळी  उभा  देखिलारे ।।१।।
   जी  सावळी  सगुण  घनानंद  मुर्ति ।
             पाहता  वेधला  माझी  चित्तवृत्ती ।।२।।
   जो  उभाची  राहिला  व्यापनी  सकळ ।
            भेटीलागी  सेना  न्हावीयासी ।।३।।
   समाधान  चित्ता।  डोळा  श्रीमुख  पाहता ।
           बहुजन्मी  केला  लाग।  सेना  देखे  पांडुरंग ।।४।।

              सेना  महाराज  देवपूजेस  बसल्याचे  राजदुतानी  महाराणा  वीरसिंहाना  सांगितले.  राजसेवेची  वेळ  टळल्यामुळे  महाराणास  अतिशय  राग  आला  त्यांनी  सेनाजींना  कड़क  शासन  करण्याचे  ठरविले.  राजरोष  हा  कोण्यावेळी  कोणास  सुळी  देईल  हे  सांगता  येत  नाही  राजाची  सेवा  चुकली  म्हणजे  राजद्रोहाचा  भयंकर  गुन्हा  त्यांच्या  हातून  घडला  होता.  राणाजींनी  सेनाजींची  मोट  बांधून  त्यांना  नदीत  फेकून  देण्यास  फर्माविले  सेनाजीवरचे  संकट  प्रभुनी  जाणले  आणि  क्षणार्धात  सेनाजीचे  रूप  धारण  केले.  व  तो  सेनाजींची  धोकटि  घेवून  राजसदनास  गेला. 

               ब्रम्हादि  देवऋषि  ज्या  प्रभूंचे  रात्रदिवस  ध्यान  करतात.  वज्रासनावर  बसून  योगी  लोक  ज्याची  अखंड  प्रार्थना  करतात  तो  प्रभु  सेनाजींचे  संकट  पाहून  नाभिक  बनून  आला.  दशेंद्रिये  बुद्धिमन  ज्याच्या  सत्तेने  काम  देतात  तो  विश्वव्यापक  चैतन्य  धन  प्रभु  मोठेपण  विसरुन  नाभिक  बनला.  किरीट  कुंडले,  कौस्तुभ  मणि  काढून  ठेवून  चक्रपाणि  धोकटि  खांदयाला  लावून  राजवाड्यावर  गेला.  वेदशास्त्राना  ही  अगम्य  अशा  श्रीपतीने  राणाजीस  मुजरा  केला.  

                सेनारूप  धारी  प्रभुस  पाहून  राणाजींचा  क्रोध  नाहीसा  झाला.  समोर  राणाजीस  बसवून  प्रभुने  त्यांची  श्मश्रु   केली.  महानचतुर  जगजीवन  राणाजींच्या  मस्तकास  तेल  मर्दन  करू त्यावर  प्रभु  परमेश्वर  बोलले  मि  सर्व  ब्रम्हांड  व्यापून  राहिलो  आहे.  अणुमात्र  माझ्या  शिवाय  काही  नाही,  मि  कर्तव्य  व्यापकरुपाने  करुण  नामा  निराळा  आहे.  हे  शारंगधराचे  बोलणे  ऐकून  राणाजी  सुखावले  अभ्यंग  मर्दनासाठी  सुगंधी  तेल  आणविले  मैलागिरिच्या  चंदनाच्या  आसनावर  बसवून  सेनारूपधारी  प्रभु  राणाजींचे  अंगमर्दन  करू  लागला.  रत्नजडित  तैलपात्रात  मोगरेला  मधे  राणाजीस  चतुर्भुज  प्रभूंचे  दर्शन  झाले.  दैदीप्यमान  मुकुट  माथ्यावर  असलेल्या  रत्नजड़ित  पिताम्बर  नेसलेल्या  घनश्याम  प्रभुचे  रूप  बघून  राणाजी  आश्चर्य  चकित  झाले.  आणि  समोर  बघतात  तर  सेनाजी  अंगमर्दन  करीत  आहेत.  असे  दिसले.  तेल  पात्रात  पहावे  तर  कृष्णरूप  दिसते  त्यारूपाने  राणाजी  थोड़ावेळ  देहभान  झाले.  

                    थोड्यावेळाने  देहभानावर  येवून  राणाजी  म्हणाले,  सेनाजी  तू  माझ्या  जवळ  सतत  रहा.  निघून  जाशील  तर  मी  प्राणत्याग  करीन  तेंव्हा  प्रभु  म्हणाले,  मी  घरी  जावून  भोजन  करुण  येतो,  तुम्ही  आता  स्नान  करा.  मग  राणाने  ओंजळभर  सुवर्णमुद्रा  त्यांच्या  धोकटित  टाकल्या ।  प्रभु  सेनाजींच्या  घरी  गेला.  धोकटि  खुंटीला  अडकवून  तो  गुप्त  झाला.

                इकडे  राणाजीनी  स्नान  केले  पण  त्यांना  काही  सुचेना  ते  म्हणाले,  मला  भोजन  नको  सेनाजीस  बोलवा  त्याला  भेटवा,  तो  आला  नाही  तर  माझे  प्राण  जातील,  त्यांचे  दर्शन  झाल्यास  माझे  मरण  चुकेल.  इतक्यात  खरा  सेनाजी  राजसेवेस  उशीर  झाला  म्हणून  घाबरून,  धोकटि  बगलेत  घेवून  हजर  झाला.  तेंव्हा  राणाजीनी  सेनाजींचे  पाय  धरले.  सकाळचे  चतुर्भुज  प्रभु  रूप  दाखव  म्हणून  सेनाजी  राणाजीस  विनवू  लागले.  सेनाजी  म्हणाले.  राणाजी  मी  सकाळी  आलो  नव्हतो,  तुमची  श्मश्रु  मी  आज  केलेली  नाही.  मी  देवपूजेतच  इतका  वेळ  रमलो  होतो.  देवपूजा  संपवून  आताच  प्रथम  मी  तुमचेकडे  आलो  आहे.  राणाजीना  आश्चर्य  वाटले,  ते  म्हणाले  तू  माझी  श्मश्रु  केल्यावर  मी  तुझ्या  धोकटित  ओंजळभर  सुवर्णमुद्रा  टाकल्या  आहेत.  उघड़  पाहु  तुझी  धोकटि,  सेनाजीनी  धोकटि  उघडली  तर  त्यामध्ये  सुवर्णमुद्रा  होत्या,  त्या  पाहून  सेनाजी  विस्मित  झाले.  आणि  मग  दोघांच्या  डोक्यात  प्रकाश  पडला.
       
          म्हणे  दीनबंधु  या  पतित  पावना ।  वैकुंठ  वासिया  नारायणा । 
          निच  काम  मनमोहना ।  मजकारने  त्वा  केले ।  अनाथ  नाथा  रुक्मिणी  वरा । 
          मदन  ताता  श्यामसुंदरा ।  नीच  काम  जगद्धुद्धारा ।  सायुज्य  उद्धारा  त्वा  केले ।। ब्रम्हा,  इंद्र  आणि  हर । 
          हे  नेणती  तुजला  पार ।  आज  धोकटि  खांद्यावर  मजकारणे  घेतली ।।

                अशा  प्रकारे  गहिवरुन  सेनाजी  आक्रोश  करुण  रडू  लागले.  राणाजीनी  सेनाजीस  मीठी  मारली.  सेनाजी  तुझ्या  भक्तीमुळे  मला  कृष्णरूप  दर्शन  झाले.  राणाजीस  पश्चाताप  झाला.  हरी  भक्ती  सार्थक  झाल्याने  सेनाजीस  आनंद  झाला.
    राणाजीनी  सेनाजीस  आपला  गुरु  केले.