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Monday, January 14, 2019

श्री संत सेना महाराजांचे बालपण .

                                                                

श्री संत सेना महाराजांचे  बालपण . 



                     सेनाजी  जसजसे  मोठे  होवू  लागले,  बोलू - चालू  लागले  तसतसे  घरातील  वातावरणाचा  त्यांच्यावर  परिणाम  होवू  लागला  व  संतजन  भजन,  पूजन,  अर्चन,  धर्मज्ञान  व  श्रवण  याबद्दल  ची  त्यांची  आवडही  वाढू  लागली  ह्या  गोष्टीचा  त्यांच्या  मातृ - पितृ  देवांना  फार  आनंद  वाटू  लागला  सेनाजी  लहानपणी  साधु  संतांची  नक्कल  करत  श्रवण  केलेली  भजने  आई - वडिलांना  जशीच्या  तशी  म्हणून  दाखवित,  


                 घरी  येणाऱ्या  थोर  साधु सन्याशी,  संत  यांचे  स्वागत  करीत.  त्यांच्यातील  भाषणे, चर्चा,  प्रश्नोत्तरे  मन  लावून  श्रवण  करीत.  त्यामुळे  त्यांची  धार्मिक  ज्ञानात  अधिकाधिक  भरपडू  लागली.  धर्म,  ईश्वर  ज्ञान  याकडे  त्यांचा  वोढा  वाढू  लागला.  

                   मुले  जमवून  ते  भजनाचा  खेळ खेळीत,  साधु  संत  दृष्टीस  पडलेकी  त्यांना  घरी  घेवून  यावे,  त्यांची  विचारपूस  करावी,  प्रवासातील  अनुभव  विचारावे  अशी  त्यांची  रीत  असे.  सेनाजी  आपले  सवंगडी  राजवाड्यास  नेऊन  रानाजींच्या  समोर  मुलांचे  भजन  करीत.  हे  त्यांचे  बालपणातील  खेळ  पाहून  त्यांच्या  मातापित्याना  धन्यता  वाटे.  देवीदास  व  प्रेमकुंवर  बाई  ईश्वराच्या  या  देणगीबद्दल  त्यांची  कृतज्ञता  पूर्वक  प्रार्थना  करीत.

                  देवीदासजी  महाराजांच्या  सेवेसाठी  जात  त्यावेळी  सोबत  सेनाजींना  ही  घेवून  जात.  राजवाड्यात  सेनाजींचा  सर्वत्र  संचार  असे  सेनाजी  महाराणा  रामराजांना  सुद्धा  फार  आवडत  त्यांना  दरबारातून  वस्त्रालंकार,  खेळणी  वैगरे  देत  असत. 
                
                  फारच  कमी  कालावधीत  वाघेला  बँधदीपक  राजपुत्र  श्री विरसिंह  कुमारांशी  सेनाजींची  मैत्री  जमली.  महाराणी  आणि  राजवाड्यातील  सेविका  सेवक  यांचेकडून  राजपुत्राप्रमाणेच  लाड  होवू  लागले.  थोडक्यात  सांगायचे  झाल्यास  सेनाजींचे  बालपण  हे  अतिशय  सुखात  गेले.